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इसी तरह की बातें करते दोनों सो गये। प्रातः काल बलराज घर गया, कसरत की, दूध पिया और ढीला कुर्ता पहन, पगड़ी बाँध डिप्टी साहब के पड़ाव की ओर चला। मनोहर जब तक उससे रूठे बैठे थे, अब जब्त न कर सके। पूछा, कहाँ जाते हो?
बलराज– जाता हूँ डिप्टी साहब के पास।
मनोहर– क्यों सिर पर भूत सवार है? अपना काम क्यों नहीं देखते।
बलराज– देखूँगा कि पढ़े-लिखे लोगों का मिजाज कैसा होता है?
मनोहर– धक्के खाओगे, और कुछ नहीं!
मनोहर– धक्के तो चपरासियों के खाते हैं, इसकी क्या चिन्ता? कुत्ते की जात पहचानी जायेगी।
मनोहर ने उसी ओर निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से देखा और कन्धे पर कुदाल रख कर हार की ओर चल दिया। बलराज को मालूम हो गया कि अब यह मुझे छोड़ा हुआ साँड़ समझ रहे हैं, पर वह अपनी धुन में मस्त था। मनोहर का यह विचार कि इस समय समझाने का उतना असर न होगा, जितना विरक्ति-भाव का, निष्फल हो गया। वह ज्योंही घर से निकला, बलराज ने भी लट्ठ कन्धे पर रखा और कैम्प की ओर चला। किसी हाकिम के सम्मुख जाने का यह पहला ही अवसर था। मन में अनेक विचार आते थे। मालूम नहीं, मिलें या न मिलें, कहीं मेरी बातें सुनकर बिगड़ न जायें, मुझे देखते ही सामने से निकलवा न दें, चपरासियों ने मेरी शिकायत अवश्य की होगी। क्रोध में भरे बैठे होंगे। बाबू ज्ञानशंकर से इनकी दोस्ती भी तो है। उन्होंने भी हम लोगों की ओर से उनके कान खूब भरे होंगे। मेरी सूरत देखते ही जल जायेंगे। उँह, जो कुछ हो, एक नया अनुभव तो हो जायेगा। यही पढ़े-लिखे लोग तो हैं जो सभाओं में और लाट साहब के दरबार में हम लोगों की भलाई की रट लगाया करते हैं, हमारे नेता बनते हैं। देखूँगा कि यह लोग अपनी बातों के कितने धनी हैं।
बलराज कैम्प में पहुँचा तो देखा कि जगह-जगह लकड़ी के अलाव जल रहे हैं, कहीं पानी गरम हो रहा है, कहीं चाय बन रही है। एक कूबड़ बकरे का मांस काट रहा है दूसरी ओर बिसेसर साह बैठे जिन्स तौल रहे हैं। चारों ओर घड़े हाँडियाँ टूटी पड़ी थीं। एक वृक्ष की छाँह में कितने ही आदमी सिकुड़े बैठे थे, जिनके मुकदमों की आज पेशी होने वाली थी, बलराज पेड़ों की आड़ में होता हुआ ज्वाला सिंह के खेमे के पास जा पहुँचा। उसे यह धड़का लगा हुआ था कि कहीं उन दोनों चपरासियों की निगाह मुझ पर न पड़ जाय। वह खड़ा सोचने लगा कि डिप्टी साहब के सामने कैसे जाऊँ? उस पर इस समय एक रोब छाया हुआ था। खेमे के सामने जाते हुए पैर काँपते थे। अचानक उसे गौस खाँ और सुक्खू चौधरी एक पेड़ के नीचे आग तापते दिखाई पड़े। अब वह खेमे के पीछे खड़ा न रह सका। उनके सामने धक्के खाना या डाँट सुनना मर जाने से भी बुरा था। वह जी कड़ा करके खेमे के सामने चला गया और ज्वालासिंह को सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया।
बाबू ज्वालासिंह एक न्यायशील और दयालु मनुष्य थे, किन्तु इन दो-तीन महीनों के दौरे में उन्हें अनुभव हो गया था कि बिना कड़ाई के मैं सफलता के साथ कर्त्तव्य का पालन नहीं कर सकता। सौजन्य और शालीनता निज के कामों से चाहे कितनी ही सराहनीय हो, लेकिन शासन-कार्य में यह सद्गुण अवगुण बन जाते हैं। लोग उनसे अनुचित लाभ उठाने लगते हैं, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लेते हैं। अतएव न्याय और शील में परस्पर विरोध हो जाता है। रसद और बेगार के विषय में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की चापलूसियाँ उनकी न्याय-नीति पर विजय पा गयी थीं, और वह अज्ञात-भाव से स्वेच्छाचारी अधिकारियों के वर्तमान साँचे में ढल गये थे। उन्हें अपने विवेक पर पहले से ही गर्व था, अब इसने आत्मश्लाघा का रूप धारण किया था। वह जो कुछ कहते या करते थे उसके विरुद्ध एक शब्द भी न सुनना चाहते थे। इससे उनकी राय पर कोई असर न पड़ता था। वह निस्पृह मनुष्य थे और न्याय-मार्ग से जौ भर भी न टलते थे। उन्हें स्वाभाविक रूप से यह विचार होता था, किसी को मुझसे शिकायत नहीं होनी चाहिए। अपने औचित्य-पालन का विश्वास और अपनी गौरवशाली प्रकृति उन्हें प्रार्थियों के प्रति अनुदार बना देती थी। बलराज को सामने देखकर बोले, कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?
बलराज ने झुक कर सलाम किया। उसकी उद्दण्डता लुप्त हो गयी थी। डरता हुआ बोला– हुजूर, से कुछ बोलना चाहता हूँ। ताबेदार का घर इसी लखनपुर में है।
ज्वालासिंह– क्या कहना है?
बलराज– कुछ नहीं, इतना ही पूछना चाहता हूँ कि सरकार को आज कितनी गाड़ियों की जरूरत होगी?
ज्वालासिंह– क्या तुम गाड़ियों के चौधरी हो?
बलराज– जी नहीं, चपरासी लोग सड़क पर जाकर मुसाफिरों की गाड़ियों को रोकते हैं और उन्हें दिक करते हैं। मैं चाहता हूँ कि सरकार को जितनी गाड़ियाँ दरकार हों, उतनी आस-पास के गाँवों से खोज लाऊँ। उनका सरकार से जो किराया मिलता हो वह दे दिया जाय तो मुसाफिरों को रोकना न पड़े।
ज्वालासिंह ने अपना सामान लादने के लिए ऊँट रख लिए थे, किन्तु यह जानते थे कि मातहतों और चपरासियों को अपना असबाब लादने के लिए गाड़ियों की जरूरत होती है। उन्हें इसका खर्चा सरकार से नहीं मिलता। अतएव वे लोग गाड़ियाँ न रोकें, तो उनका काम ही न चले। यह व्यवहार चाहे प्रजा को कष्ट पहुँचाए, पर क्षम्य है।
उनके विचार में यह कोई ऐसी ज्यादती न थी। सम्भव था कि यही प्रस्ताव किसी सम्मानित पुरुष ने किया होता, तो वह उस पर विचार करते, लेकिन एक अक्खड़ गँवार, मूर्ख देहाती को उनसे यह शिकायत करने का साहस हो, वह उन्हें न्याय का पाठ पढाने का दावा करे, यह उनके आत्मभिमान के लिए असह्य था। चिढ़कर बोले– जाकर रिश्तेदार से पूछो।
बलराज– हुजूर ही उन्हें बुलाकर पूछ लें। मुझे वह न बतायेंगे।
ज्वालासिंह-मुझे इस सिर-दर्द की फुर्सत नहीं है।
बलराज के तेवर पर बल पड़ गये। शिक्षित समुदाय की नीति-परायणता और सज्जनता पर उसकी जो श्रद्धा थी, वह क्षण-मात्र में भंग हो गयी। इन सद्भावों की जगह उसे अधिकार और स्वेच्छाचार का अहंकार अकड़ता दीख पड़ा। अहंकार के सामने सिर झुकाना उसने न सीखा था। उसने निश्चय किया कि जो मनुष्य इतना अभिमानी हो और मुझे इतना नीच समझे, वह आदर के योग्य नहीं है। इनमें और गौस खाँ या मामूली चपरासियों में अन्तर ही क्या रहा? ज्ञान और विवेक की ज्योति कहाँ गयी? निःशंक होकर बोला– सरकार इसे सिर-दर्द समझते हैं। और यहाँ हम लोगों की जान पर बनी हुई है। हुजूर धर्म के आसन पर बैठे हैं, और चपरासी लोग परजा को लूटते फिरते हैं। मुझे आपसे यह विनती करने का हौसला हुआ, तो इसलिए कि मैं समझता था, आप दीनों की रक्षा करेंगे। अब मालूम हो गया कि हम अभागों का सहायक परमात्मा के सिवा और कोई नहीं।
यह कहकर वह बिना सलाम किये ही वहाँ से चल दिया। उसे एक नशा-सा हो गया था। बातें अवज्ञापूर्ण थीं, पर उनमें स्वाभिमान और सदिच्छा कूट-कूट कर भरी हुई थी। ज्वालासिंह में अभी तक सहृदयता का सम्पूर्णतः पतन न हुआ था। क्रोध की जगह उनके मन में सद्भावना का विकास हुआ। अब तक इनके यहाँ स्वार्थी और खुशामदी आदमियों का ही जमघट रहता था। ऐसे एक भी स्पष्टावादी मनुष्य से उनका सम्पर्क न हुआ था। जिस प्रकार मीठे पदार्थ खाने से ऊबकर हमारा मन कड़वी वस्तुओं की ओर लपकता है, उसी भाँति ज्वालासिंह को ये कड़वी बातें प्रिय लगीं। उन्होंने उनके हृदय-नेत्रों के सामने से पदाभिमान का पर्दा हटा दिया। जी में तो आया कि इस युवक को बुलाकर उससे खूब बातें करूँ, किन्तु अपनी स्थिति का विचार करके रुक गये। बहुत देर तक बैठे हुए इन बातों पर विचार करते रहे। अन्तिम शब्दों ने उसकी आत्मा को एक ठोंका दिया था और वह जाग्रत हो गयी थी। मन में अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लेने के बाद उन्होंने अहलमट साहब को बुलाया। सैयद ईजाद हुसेन ने बलराज को जाते देख लिया था। कल का सारा वृत्तान्त उन्हें मालूम ही था। ताड़ गये कि लौंडा डिप्टी साहब के पास फरियाद लेकर आया होगा। पहले तो शंका हुई, कहीं डिप्टी साहब बातों में न आ गये हों। लेकिन जब उसकी बातों से ज्ञात हुआ कि डिप्टी साहब ने उल्टे और फटकार सुनाई तो धैर्य हुआ। बलराज को डाँटने लगे। वह अपने अफसरों के इशारे के गुलाम थे और उन्हीं की इच्छानुसार अपने कर्त्तव्य का निर्माण किया करते थे।